"क्या हम निर्दोष हैं"
"क्या हम "क्या हम निर्दोष हैं" भारत की एक बहुप्रतिष्ठित पत्रिका इंडिया टुडे की कवर स्टोरी पढ़ा था यही कोई बीते ग्यारह बारह साल। शीर्षक था "ये भदेस हिंदुस्तानी"। ऐसा ही कुछ इस आपदाकाल में इन विचारों के साथ कि दोषी कौन? क्या हम निर्दोष हैं? संस्कृति, प्रतिस्पर्धा में जुटे विश्व के लिए एक लाभदायक और महत्वपूर्ण कड़ी है। पूरी दुनिया में जहाँ हर चीज़ की नकल बनाई जा सकती है - संस्कृति उस नकल के बेहतर या औसत होने का कारण हो सकती है । यह बात व्यापार और मानवीय व्यवहार पर बराबर लागू होती है। मैं सभ्यता की बात नहीं कर रहा हूँ। भारतीय दर्शन की अति गहरी दार्शनिक अवधारणाएं होने के बावजूद, मानवीय संवेदना की निष्ठुरता के नित नए प्रतिमान हम अपने व्यवहार से गढ़ते जा रहे हैं। बात बिलकुल वहीँ हैं जहाँ हम लाइन तोड़ कर सुविधाएं हासिल करने को प्रेरित होते हैं, दुधारू जानवर को इंजेक्शन लगाकर दूध निकालते हैं, पेण्ट से या बहुत से कृत्रिम रसायनों जैसे यूरिया, व्हाइटनर आदि से दूध तक बना देते हैं। राग दरबारी में श्रीलाल शुक्ल ने कूड़े को भी मिठाई में बदल देने की तरकीब का ज़िक्र किया है। तो जब पू...