"क्या हम निर्दोष हैं"

"क्या हम 
"क्या हम निर्दोष हैं"




भारतीय दर्शन की अति गहरी दार्शनिक अवधारणाएं होने के बावजूद, मानवीय संवेदना की निष्ठुरता के नित नए प्रतिमान हम अपने व्यवहार से गढ़ते जा रहे हैं। बात बिलकुल वहीँ हैं जहाँ हम लाइन तोड़ कर सुविधाएं हासिल करने को प्रेरित होते हैं, दुधारू जानवर को इंजेक्शन लगाकर दूध निकालते हैं, पेण्ट से या बहुत से कृत्रिम रसायनों जैसे यूरिया, व्हाइटनर आदि से दूध तक बना देते हैं। राग दरबारी में श्रीलाल शुक्ल ने कूड़े को भी मिठाई में बदल देने की तरकीब का ज़िक्र किया है।

तो जब पूरा देश भ्रष्टाचार को ख़त्म कर देने के लिए एक आमरण अनशन से आंदोलित होकर विद्रोह कर उठता है, लेकिन ट्रैफिक सिग्नल तोड़ने, टैक्स चुराने, महत्वपूर्ण पदों की मदद से अनाधिकृत सुविधा/व्यवस्था पाने की ख़ुशी में तल्लीन रहता है, आज वह चिकित्सकीय दुर्व्यवस्था पर कुपित है - वो भी सिर्फ तब जब या तो कोई उसका अपना व्यवस्था से निपट गया या फिर उसका मन रामलीला मैदान के आंदोलन के प्रभाव में जैसे आया था वैसे ही लोगों के दर्द से द्रवित हो गया।




आपने सोचा कि एक मसीहा आएगा और हमारे इन सारे गुनाहों को धो कर हमें विश्वगुरु बना देगा। हम ईशोपनिषद् का सूत्र भूल गए - तेन त्यक्तेन भुंजीथा: - त्याग करने पर ही भोग होगा। नहीं नहीं - मैं किसी पचासी साल के बुज़ुर्ग द्वारा अस्पताल का बिस्तर किसी चालीस साल के उम्र के आदमी के लिए छोड़ने की बात नहीं कर रहा। भोग से पहले त्याग की बात कर रहा हूँ, त्याग ही भोग लाएगा । 

सारी भविष्यवाणियां झूठी थीं - हमारे मिजाज और जरूरत के अनुकूल थीं। मसीहा नहीं आएगा । कोई  तारणहार बाहर नहीं है। अब अँधेरे से डरने का समय नहीं है, जो हो रहा है वो हमारे भीतर से प्रस्फुटित हुआ था - भ्रष्टाचार, हिंसा या आतंकवाद - सबकुछ।  हमने यही किया था अपने आप के साथ, अपने आस पास - सब जगह, तो बदलाव वहीँ जरूरी है ल। हमें चुनना होगा कि हम विश्वगुरु होने के गुरुर के साथ जीते हुए मृत्यु का इन्तजार करेंगे या विश्वगुरु बनाने  वाले संस्कारों को समझेंगे बल्कि उन संस्कारों को आत्मसात करेंगे। 




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