सिन्धु- गंगा मैदान


हिमालय पर्वत का जल सिन्धु , गंगा , ब्रह्मपुत्र एवं इनकी अनेक सहायक नदियों के मार्ग से भारत भूमि पर प्रवाहित होती है । यह जल अपने साथ विपुल मात्रा में जीवनदायिनी मृदा लेकर आता है। अनादिकाल से भारत भूमि को आच्छादित करती चली आ रही हिमालयकी इस उर्वर मृदा से सिन्धु - गंगा के इस भव्य मैदान का निर्माण हुआ है। 

यह मैदान अपनी प्राचीनता , विशालता , उर्वरता , समतलता एवं गहराई के लिये विश्व भर में विख्यात है। पश्चिममें सिन्धुसागर से लेकर पूर्वमें गंगा सागर तक विस्तृत यह मैदान 3,000 किलोमीटर लंबा और 250 किलोमीटर चौड़ा है। इस मैदान का विस्तार भारत भूमिके कुल क्षेत्रफल के पाँचवे भाग के समान है। इतना विशाल यह क्षेत्र पूरे - का - पूरा कृषियोग्य है और यह विश्व के सर्वाधिक उर्वर क्षेत्रा में से एक है। पचास के दशक में तब सद्यस्वतन्त्र भारतकी सहज सम्पदाओं का आकलन करते हुए एक अमरीकी समाजविज्ञानी इस मैदान का वर्णन करते हैं।
नदियों के आप्लावन से प्रतिवर्ष इस मैदान की मिट्टी के बड़े भाग का नवीनीकरण हो जाता है। इस प्रकार नदियों द्वारा पहाड़ों से लायी गयी यह मिट्टी अत्यन्त मृदु एवं सूक्ष्म होती है। कहा जाता है कि आप चाहे चलते - चलते इस पूरे मैदानको लाँघ जायें , मार्गमें आप कहीं एक छोटा - सा कंकड़ भी नहीं पायेंगे। मिट्टीकी परत इस मैदानके प्रायः 8 करोड़ हेक्टेयर के क्षेत्र में अत्यन्त समतलता से और अत्यन्त गहराई तक बिछी है। इसकी गहराई का सही - सही अनुमान तो कभी नहीं लगाया जा सका , कई स्थानों पर 1,300 फ़ीट तक खोदने पर भी चट्टानी तल का कहीं अता-पता नहीं चल पाया और इस मैदानकी समतलता ऐसी है कि पहाड़ - पहाड़ी तो दूर रहे , कहीं कोई टीला भी धरातल की एकरसता को तोड़ता दिखाई नहीं देता। 
सिन्धु एवं गङ्गाके नदी मुखों के प्रायः मध्य में और नदीमार्ग द्वारा समुद्रतल से 2,000 किलोमीटर दूर स्थित आगरा में धरातल समुद्रतल से मात्र 550 फ़ीट ऊँचा उठ पाता है । इस अद्भुत समतलता के कारण यहाँ की नदियाँ मंद गति से चलती हुईं इस समस्त भूमिका भलीभाँति निषेचन करती चली जाती हैं , इसे उर्वरता से सम्पन्न करती चली जाती हैं। मन्द गति से चलती नदियों पर जलमार्गों एवं सिञ्चाई के लिये नहरों - नालों की व्यवस्था भी सुगमता से हो जाती है। इसीलिये यह मैदान विश्व में कृषि योग्य भूमि के सबसे बड़े विस्तारों में से एक है , विश्वके महानतम कृषि क्षेत्रों में इसकी गणना होती है। 

आज आधुनिक तकनीकों के माध्यम से हिमालय के समानांतर लगते क्षेत्र मे मिट्टी की परत की गहराई 8,000 मीटर तक मापी जा चुकी है। पूरे मैदान की मध्य गहराई अब 1,300 से 1,500 मीटर तक आंकी जाती है। इतनी गहराई वाला मैदा अन्य कहीं भी मिलना असंभव है।

Edited by: Patanjali Mishra

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