भारत के कृषि वैभव पर विश्व विस्मित होता रहा है (क्रमशः) भाग 1


प्रथम शताब्दी ईसापूर्व के रोमन आख्याता डियोडोरस सिक्युलस भारत के विषय में लिखते हैं भारत में अनेक विशाल पर्वत हैं जो सब प्रकार के फलवान् वृक्षों से आच्छादित रहते हैं । वहाँ अपूर्व सौंदर्य से युक्त अत्यधिक उर्वर विस्तृत मैदान हैं, जिनमें अनेक नदियाँ प्रवाहित होती हैं । 
भारत की अधिकतर भूमि भलीभाँति सिञ्चित है और उसपर प्रतिवर्ष दो शस्य फलित होते हैं। अन्य अनाजों के अतिरिक्त भारत में सब स्थानों पर मोटे अनाज भी उगते हैं। स्थान - स्थान पर बहती जलधाराओं से इन शस्योंका सिञ्चन होता है। वहाँ बढ़िया दालें और धान भी प्रचुर मात्रा में उगते हैं । भोजनोपयोगी अनेक अन्य पौधे होते हैं। इनमें से अधिकतर मात्र भारत में ही पाये जाते हैं। भारतभूमि पर पशुओं के पोषण के लिये उपयोगी अनेक प्रकार के फल भी प्राप्त होते हैं। 
अतः यह प्रामाणिक रूप से कहा जा सकता है कि भारतवर्ष में कभी दुर्भिक्ष नहीं पड़ा और पौष्टिक भोजन का सार्वजनिक अभाव वहाँ कभी नहीं हुआ। चौदहवीं ईसवी शताब्दी के अफ्रीकी इब्नबतूता भारत प्रवास के अपने विवरणों में लिखते हैं शरद्की शस्य एकत्र करने के तुरन्त पश्चात् वे उसी भूमि पर वसन्त के अनाजों की बुवाई करने लगते हैं। क्योंकि उनकी भूमि उत्कृष्ट है और वहाँ की मिट्टी अत्यन्त उर्वर है। धान के तो वे एक वर्ष में तीन शस्य उगा लेते हैं ।

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