भारत ने समस्त सृष्टि में ऐक्य एवं अनुशासित क्रम का दर्शन किया है

एको देव: सर्वभूतेषु गूढ: सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा|
कर्माध्यक्ष: सर्वभूताधिवास: साक्षी चेता केवलो
निर्गुणश्च ||

एक ही देव सभी पदार्थों में विराजमान है (गूढ़ः = छिपा है रहा है ) वह सर्वव्यापी है और वह अन्तर्यामी है। (सभी जीवों में बसता है ) वही कर्मों का अध्यक्ष है वही सब में वास करता है और सबका साक्षी है वही सबकी चेतना है और वह निर्गुण है ।

भारत की मान्यता है कि समस्त सृष्टि एक ही ब्रह्म की बहुरूप अभिव्यक्ति है । सृष्टि के समस्त भावों के प्रति गहन सम्मान एवं श्रद्धा रखने का मूल अनुशासन इसी मान्यता में आश्रित है । ब्रह्म सृष्टि के विभिन्न भावों में अपने आपको अभिव्यक्त करता है और युग के अन्त पर उन सब भावों का पुनः अपने आप में संकुचन कर लेता है। यह सब जो है वह ब्रह्म के व्यास एवं संकुचन की लीला ही है। सृष्टि लीला है। परन्तु यह लीला अमर्यादित नहीं है। व्यास एवं संकुचन की यह लीला निश्चित कालक्रम के अनुरूप चलती है। 
समस्त सृष्टि काल के इस अनुशासन से बद्ध है , स्वयं ब्रह्म भी काल से मर्यादित है। ब्रह्म की इस अनादि अनन्त लीला का आभास कदाचित् प्रत्येक भारतीय के चित्त में अंकित रहता है। सब भारतीय इस लीला की क्रमबद्धता एवं इस सब में काल के अनुशासन को अनिवार्यता के प्रति सचेत हैं। अतः सब भारतीयों में सृष्टि के सब भावों के प्रति दायित्वपूर्ण सहोदरता का भाव रहता है । 
सब भारतीयों में कहीं यह आभास रहता है कि समस्त जड़ व चेतन जगत्में ब्रह्मका अंश विद्यमान है , अतः सृष्टि के सब जड़ एवं चेतन भाव सम्मान एवं श्रद्धा के अधिकारी हैं, उन सबका देशकालानुरूप संरक्षण एवं पोषण करना हमारा सहज दायित्व है। समस्त जड़ - चेतन सृष्टि में ब्रह्म के अंशका दर्शन करने के इस भारतीय अनुशासन में अन्योंको अन्ध मूर्तिपूजा दिखाई देती है । भारतीयों की मान्यता है कि इस पृथ्वी पर दायित्वपूर्ण जीवन यापन का यही एक सही मार्ग है ।

Comments

  1. बहुत अच्छा वर्णन किया है।।

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

भारतकी अन्य महान नदियाँ

हिमालयसे संरक्षित एवं संवर्धित भूमि

भारत का प्राचीन वैभव