संरक्षण एवं संविभाग भारतीयताका मूल है



समस्त सृष्टि में ऐक्य एवं ब्रह्मत्व के ज्ञानसे सम्पन्न भारतीयों ने सृष्टि के सब भावों का संरक्षण एवं पोषण करने के दायित्व को मानव जीवन के अनुल्लङ्घनीय अनुशासन की प्रतिष्ठा दी है। सनातन धर्म की सब अनुशासित एवं समर्थ गृहस्थों से यह अपेक्षा है कि वे स्वयं उपभोग की ओर प्रवृत्त होने से पूर्व अपने दायित्व क्षेत्र में आनेवाले सृष्टिके समस्त भावों के लिये समुचित भागांश निकालें , स्वयं भोजन करने से पूर्व अन्य सबकी क्षुधा का शमन करें। 
भारतीय सभ्यता में इस अनुशासन का उल्लङ्घन कर समस्त सृष्टि का संरक्षण एवं भरण - पोषण करने के दायित्व की उपेक्षा करने वालो को चोर - समान माना गया है। श्रीकृष्ण ने स्वयं श्रीमद्भगवद्गीता में भारतीयों को यह शिक्षा दी है कि सब भोग सृष्टि के समस्त भावों की उदारता से ही हमें प्राप्त होते हैं , इस प्रकार समस्त भावों के अंशदान से प्राप्त हुए भोगों को उन भावों में संविभाजित किये बिना जो अकेला स्वयं उनका उपभोग करता है , वह वस्तुतः चोर ही है।
 तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः

ईशोपनिषद्का उपदेश है कि इस जगत में जो है वह सब उस एक ब्रह्म से व्याप्त है। अतः जो भी भोग हमें प्राप्त होते हैं उनका समस्त सृष्टि में संविभाजन करने के उपरान्त ही उपभोग करना समुचित है। 

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः

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