गृहस्थ भारतीय समाजका आधारस्तम्भ है


भारती य सभ्यता में इस सृष्टि के मौलिक ऐक्य एवं इसमें सर्वव्याप्त ब्रह्म का दर्शन तो हुआ ही है , इस दर्शन के अनुरूप जीवन यापन करने के लिये सम्यक् सामाजिक व्यवस्था का विधान भी यहाँ कर दिया गया है। 
भारतीय समाज व्यवस्था भी वैसी ही विशिष्ट भारतीयता लिये हुए है जैसी सृष्टि सम्बन्धी भारतीय दर्शन में परिलक्षित होती है। भारतीय सभ्यता में सृष्टिके समस्त भावों का भरण-पोषण करने का उत्तरदायित्व प्रमुखतः धर्मनिष्ठ , अनुशासित एवं समर्थ गृहस्थों का है। महाभारत में भगवान् शंकर उमाजी से कहते हैं कि सृष्टि के सैंकड़ों - सहस्रों चराचर गृहस्थ के ही आश्रय में हैं, वे सब - के - सब गृहस्थ के धर्मसम्मत का से अर्जित भोगों का ही उपभोग करते हैं। 
राजा, अमात्य, सैनिक एवं विद्वान् - विचारक आदि सब और दूर - दूर से चलकर आ रहे पाथेयरहित पथिक भी भरण - पोषण के लिये गृहस्थ पर ही निर्भर हैं। भारतीय सामाजिक , आर्थिक एवं नैतिक व्यवस्था की मूल इकाई गृहस्थ है और गृहस्थ इस महान् दायित्व का निर्वाह अकेले नहीं अपने समस्त कुटुम्ब को साथ लेकर ही करता है।

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