द्रौपदी - सत्यभामा संवाद


महाभारत के वनपर्व में द्रौपदी सत्यभामा से इन्द्रप्रस्थ के राजगृह में अपनी भूमिका एवं दिनचर्या का वर्णन इस प्रकार करती हैं मैं नित्य भिक्षा , बलि एवं श्राद्ध का सम्पादन करती हूँ। मैं ही विभिन्न पर्वों के समय स्थालीपाक यज्ञ सम्पन्न करती हूँ। में ही माननीय जनों का सम्मान - सत्कार करती हूँ। कुटुम्ब में प्रचलित जिन धर्मो को मैंने पूर्व में अपनी सास से सुन रखा है और अन्य भी जिन धर्मो को मैं स्वयं जानती हूँ , उन सबका मैं आलस्य त्यागकर दिन रात पालन करती हूँ । 
कुन्ती के बुद्धिमान् पुत्र युधिष्ठिर की शतसहस्र दासियाँ हाथों में भोजन के पात्र लिये दिन - रात अतिथियों को खिलाने में तत्पर रहती थीं। जब इन्द्रप्रस्थवासी राजा युधिष्ठिर प्रवास पर निकलते थे तो शतसहस्र हाथी और शतसहस्र अश्व उनका अनुसरण करते थे। उन दिनों जब युधिष्ठिर इन्द्रप्रस्थ में रहकर पृथ्वी का परिपालन करते थे, तब ऐसा उनका वैभव हुआ करता था। तब मैं ही उन असंख्यात दासियों , अश्वों एवं हाथियों आदि की गणना करती थी। मैं ही उनके लिये आवश्यक वस्तुओं का प्रबन्ध करती थी और मैं ही उनकी समस्याएं सुनती थी। 
अन्तःपुर के समस्त वासियों , पाण्डवगृह के सब भृत्यों और गोपालों एवं गडरियों से लेकर समस्त कर्मकारों के समग्र कृत-अकृत की जानकारी मुझे ही रहती थी । यशस्विनि सत्यभामे, कल्याणि, राजा युधिष्ठिर समेत सब पाण्डव बन्धुओं के समस्त आय - व्ययकी जानकारी अकेले मुझे ही थी। वरानने , भरतवंश के ऋषभ पाण्डवों ने गृहस्थ का समस्त दायित्व अकेले मुझ पर ही छोड़ रखा था। इस प्रकार वे बोझमुक्त हो उपासना में रत रहते थे और अपनी उपासना के अनुरूप कर्मो का निर्वाह किया करते थे ।

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