भारतीय राज्यका आधार ग्राम एवं समुदायमें है
भारत के गृहस्थ ग्राम , वंश , जाति एवं सम्प्रदाय जैसे विभिन्न सामाजिक समूहों में व्यवस्थित है। भारतीय दृष्टि में समाज के ये सब सहज , स्वयंभूत एवं अवयवी संघटक सार्वजनिक नीतिक विधिसम्मत सहभागी हैं। इन संघटकों की अपने - अपने अधिकार - क्षेत्र की गतिविधियों और इनके मध्य पारस्परिक सामञ्जस्य से ही सार्वजनिक नीति की रचना होती है।
वस्तुतः समाज के सहज संघटकों की गतिविधियाँ और उनका पारस्परिक सामञ्जस्य ही भारत की सार्वजनिक नीति है। सार्वजनिक नीति एवं व्यवस्था के क्षेत्र में किसी आधुनिक राज्य से जिन - जिन कार्यों की अपेक्षा की जाती है वे सब कार्य भारत में समाज के इन सहज संघटकों के माध्यम से ही हुआ करते थे। आधुनिक राज्य के दो सबसे बड़े कार्य हैं- सार्वजनिक शान्ति व्यवस्था बनाये रखना और साधनहीनों , वृद्धजनों और अन्य असहायों के लिये सामाजिक सुरक्षा का प्रबन्ध करना। इन दो कार्यो पर राज्य की शक्ति एवं साधनों के बड़े भाग का नियोजन करना पड़ता है।
समृद्ध देशों के आधुनिक राज्यतन्त्र अपने सकल राष्ट्रीय उत्पादन का प्रायः एक - तिहाई भाग इन के कार्यों पर व्यय करते हैं। भारत में आज भी इन दोनों कार्यों का सम्पादन मुख्यतः कुटुम्ब , ग्राम , जाति एवं सम्प्रदाय जैसे संघटक ही करते हैं। इसीलिये भारत में प्रति व्यक्ति पुलिसबल विश्व में प्रायः न्यूनतम है , तथापि हिंसक अपराधों की घटनाएँ भी प्रायः न्यूनतम ही हैं। कुटुम्ब , ग्राम , जाति एवं सम्प्रदाय जैसे संघटक वृद्धजनों , रोगियों एवं असहाय दरिद्रों की सेवा - शुश्रूषा का कार्य भी निभाते चले आ रहे हैं। आज के भारतीय राज्य की इन कार्यों में गति अल्प ही है।
दीर्घकाल की राजनैतिक दासता ने भारतीय समाज के इन सहज संघटकोंकी गरिमा एवं साधनोंको क्षीण किया है। अतः आज कुटुम्बों , ग्रामों , जातियों एवं सम्प्रदायों का ऐसा सामर्थ्य नहीं है कि वे अपने सब कार्यों को वैसी उदारता एवं सम्पूर्णता से सम्पन्न करें जैसी अपेक्षा सुचारू भारतीय नीतिव्यवस्थामें उनसे रही है। परन्तु सामान्य भारतीयों को जैसी - कैसी भी सामाजिक सुरक्षा आज उपलब्ध है वह समाज के इन्हीं सहज संघटकों से प्राप्त होती है । आगे हम देखेंगे कि यही संघटक आज विभिन्न क्षेत्रों में भारतीयों के सहज उद्यम के पुनःप्रस्फुटन का आधार बन गये हैं।
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