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Showing posts from August, 2021

भारत के कृषि वैभव पर विश्व विस्मित होता रहा है (क्रमशः भाग-2)

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 सत्रहवीं ईसवी शताब्दी के फ्रांसॉय बर्नियर बंगालके सन्दर्भ में लिखते हैं सब कालों के अध्येता मिस्र को विश्व की श्रेष्ठतम एवं सर्वाधिक उर्वरा भूमिका गौरव देते रहे हैं। हमारे आधुनिक लेखक भी ऐसा मानते हैं कि मिस्र जैसी प्राकृतिक सम्पदा से सम्पन्न कोई अन्य भूमि नहीं है।  बंगाल की अपनी दो यात्राओं में मैं उस देश के विषय में जो जान पाया हूँ उसके आधार पर मेरा तो यही मत बना है कि मिस्र को दिये जाने वाले गौरव का वास्तविक अधिकारी बंगाल है। बंगाल में धानकी ऐसी प्रचुर उपज होती है कि उससे न केवल पड़ोसी प्रदेशोंकी अपितु सुदूर राज्योंकी आवश्यकताओंका संभरण भी होता है। बंगाल का धान गंगा पर धारा से विपरीत दिशा में पटना तक ले जाया जाता है। समुद्र मार्ग से इसे चोलमण्डल तट के मछलीपत्तनम् एवं अन्य अनेक पत्तनों तक पहुंचाया जाता है। अनेक विदेशी राज्यों में भी प्रधानतः श्रीलंका एवं मालदीव द्वीपों में यहाँका धान पहुँचता है। इसी प्रकार बंगाल में चीनी की भी बहुलता है।  यहाँ को चीनी गोलकोण्डा एवं कर्नाटक प्रदेशो तक जाती है। ... यहाँ के सामान्य लोगोंके मुख्य भोजन में घी - चावल के अतिरिक्त ती

भारत के कृषि वैभव पर विश्व विस्मित होता रहा है (क्रमशः) भाग 1

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प्रथम शताब्दी ईसापूर्व के रोमन आख्याता डियोडोरस सिक्युलस भारत के विषय में लिखते हैं भारत में अनेक विशाल पर्वत हैं जो सब प्रकार के फलवान् वृक्षों से आच्छादित रहते हैं । वहाँ अपूर्व सौंदर्य से युक्त अत्यधिक उर्वर विस्तृत मैदान हैं, जिनमें अनेक नदियाँ प्रवाहित होती हैं ।  भारत की अधिकतर भूमि भलीभाँति सिञ्चित है और उसपर प्रतिवर्ष दो शस्य फलित होते हैं। अन्य अनाजों के अतिरिक्त भारत में सब स्थानों पर मोटे अनाज भी उगते हैं। स्थान - स्थान पर बहती जलधाराओं से इन शस्योंका सिञ्चन होता है। वहाँ बढ़िया दालें और धान भी प्रचुर मात्रा में उगते हैं । भोजनोपयोगी अनेक अन्य पौधे होते हैं। इनमें से अधिकतर मात्र भारत में ही पाये जाते हैं। भारतभूमि पर पशुओं के पोषण के लिये उपयोगी अनेक प्रकार के फल भी प्राप्त होते हैं।  अतः यह प्रामाणिक रूप से कहा जा सकता है कि भारतवर्ष में कभी दुर्भिक्ष नहीं पड़ा और पौष्टिक भोजन का सार्वजनिक अभाव वहाँ कभी नहीं हुआ। चौदहवीं ईसवी शताब्दी के अफ्रीकी इब्नबतूता भारत प्रवास के अपने विवरणों में लिखते हैं शरद्की शस्य एकत्र करने के तुरन्त पश्चात् वे उसी भूमि प
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भारतके कृषि वैभव पर विश्व विस्मित होता रहा है  प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व के रोमन आख्याता डियोडोरस सिक्युलस भारत के विषय में लिखते हैं भारत में अनेक विशाल पर्वत हैं जो सब प्रकार के फलवान् वृक्षों से आच्छादित रहते हैं। वहाँ की अपूर्व सौंदर्य से युक्त अत्यधिक उर्वर विस्तृत मैदान हैं, जिनमें अनेक नदियाँ प्रवाहित होती हैं। भारत की अधिकतर भूमि भली-भाँति सिंचन है और उस पर प्रतिवर्ष दो शस्य फलित होते हैं ।  अन्य अनाजों के अतिरिक्त भारत में सब स्थानों पर मोटे अनाज भी उगते हैं। स्थान - स्थान पर बहती जलधाराओं से इन शस्यों का सिंचन होता है। वहाँ बढ़िया दालें और धान भी प्रचुर मात्रा में उगते है। भोजनोपयोगी अनेक अन्य पौधे होते हैं। इनमें से अधिकतर मात्र भारत में ही पाये जाते हैं। भारत भूमि पर पशुओं के पोषण के लिये उपयोगी अनेक प्रकार के फल भी प्राप्त होते हैं। अतः यह प्रामाणिक रूप से कहा जा सकता है कि भारत वर्षमें कभी दुर्भिक्ष नहीं पड़ा और पौष्टिक भोजन का सार्वजनिक अभाव वहाँ कभी नहीं हुआ।  चौदहवीं ईसवी शताब्दी के अफ्रीकी इब्नबतूता भारत प्रवास के अपने विवरणों में लिखते हैं शरद्क

विपुल कृषि उपज की भूमि

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भारत भूमि को विपुल प्राकृतिक उर्वरता , प्रचुर जल एवं असीम धूप प्राप्त हुई है। भारत के लोगों ने प्रकृति की इस विशिष्ट अनुकम्पा को कृतज्ञता पूर्वक स्वीकार किया है। अत्यन्त प्राचीन काल से ही वे इस प्राकृतिक प्राचुर्य का समुचित नियोजन करने के लिये कृषिके विभिन्न क्षेत्रों में उच्चतम दक्षताएँ विकसित करने को कृतसंकल्प रहे हैं।  चौथी शताब्दी ईसापूर्व के यूनानी योद्धा सिकन्दर से लेकर अठारहवीं ईसवी शताब्दी के प्रायः अन्त के यूरोपीयो तक भारत में आनेवाले प्रायः सब पर्यवेक्षक भारतीय कृषकों की उपज के बाहुल्य को देखकर स्तब्ध होते रहे हैं। हल चलाना , खाद देना , सिञ्चाई करना , बीजों का चयन , शस्यों का आवर्तन , भूमि परती रखना जैसी कृषि - सम्बन्धी समस्त विधाओं में भारतीय कृषकों की परिष्कृत तकनीकों से वे प्रभावित हुए हैं। कृषि के विविध कायाँ के लिये भारत के विभिन्न भागों में विकसित सादे - सरल तथापि पूर्णतः कार्यक्षम उपकरणों ने उन्हें विस्मित किया है।  उपलब्ध ऐतिहासिक स्रोत प्रमाणित करते हैं कि प्रायः अर्वाचीन काल तक भारतीय विश्व के सर्वोत्तम कृषक रहे हैं। विभिन्न कालों के शिलालेखो

तंजावूर का धर्मराज्य

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अनजान लोगों के भी जो अनाथ बच्चे छत्र में आ पहुँचते हैं , उन सबको शिक्षक को देखभाल में रखा जाता है। उन्हें दिन में तीन समय भोजन दिया जाता है और प्रतिचौथे दिन उनका तेल से अभ्यञ्जन होता है। आवश्यकता पड़ने पर उन्हें औषधि एवं समय - समय पर वस्त्र उपलब्ध करवाये जाते हैं , और उनकी सब प्रकारले समुचित देखभाल करने के सब प्रयास किये जाते हैं।  जिस किसी विद्या में उनको रुचि हो उन्हें उस विद्या में शिक्षा दिलवाई जाती है, और जब वे अपनी रुचिके विषय में पारङ्गत हो जाते हैं तो उनके विवाह का व्यय छन उठाता है। छत्र में पहुँचकर जो यात्री अस्वस्थ हो जाते हैं उनके लिये औषध एवं समुचित अन्नपान का प्रबन्ध किया जाता है और स्वस्थ होने तक सम्मान एवं स्नेहपूर्वक उनकी सेवा - शुश्रूषा की जाती है। शिशुओं के लिये दूध दिया जाता है। गर्भवती महिलाओं की विशेष स्नेहपूर्वक देखभाल की जाती है। उनमें से जिनका गर्भ छन में रहते हुए पूर्ण हो जाता है उनके प्रसव का व्यय छन्त्र उठाता है। उनके लिये समुचित औषधियाँ उपलब्ध करवायी जाती हैं और प्रसव के पश्चात् तीन महीने तक उन्हें छत्र में रहने की अनुमति होती है। तंज

तंजावुर का धर्मराज्य

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तंजावुर के राजा सरफोजी महाराज ने सन् 1801 ईसवी में तंजावूर सभा में आरोपित ब्रितानी रेजीडेंट के नाम एक पत्र लिखकर ब्रितानी प्रशासकों को अपने राज्य के अन्न क्षेत्रों के कामकाज एवं सहज भारतीय व्यवस्था में इन संस्थाओं के महत्त्व से अवगत करवाने का प्रयास किया। अन्नक्षेत्र के लिये तमिल शब्द ' छत्रम् ' है।  इन छत्रों का सजीव चित्रण करते हुए सरफोजी महाराज लिखते हैं मैं आपको इन छत्रों से प्रवाहित होने वाले पुण्य कार्यों के स्वरूप एवं विस्तार से अवगत करवा दूं- यहाँ आनेवाले सब यात्री , ब्राह्मण से लेकर परया हरिजन तक सब जातियों के जोगी , जंगम , अतीत , बैरागी आदि विभिन्न रूपों में आनेवाले सब लोग , यहाँ पहुँचने पर पके चावल का भोजन पाते हैं। उनमें से जो पका अन्न ग्रहण नहीं करते उन्हें विभिन्न आवश्यक द्रव्यों सहित कच्चा चावल दिया जाता है।  पके व कच्चे अन्न का यह वितरण आधी रात तक चलता रहता है और तब घंटी बजाकर घोषणा की जाती है कि जिस किसी को तबतक भोजन प्राप्त न हुआ हो वह आकर अपने भाग का अन्न ले जाये। प्रत्येक छत्र में चार वेदों के अध्ययन के लिये एक - एक आचार्य , एक सामान्

रामराज्य

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  सार्वजनिक नीतिव्यवस्था की भारतीय अवधारणाओं के अनुरूप संगठित राज्य जिसमें समाज के समस्त सहज संघटक बिना किसी व्यवधान के अपने - अपने अधिकार - क्षेत्र में अपने - अपने कार्य का सम्यक् सम्पादन करने में समर्थ हों और जिस राज्य में समाज के सहज संघटकां के पूर्व प्रतिष्ठित अनुशासन एवं धर्म की रक्षा होती हो , ऐसे राज्य को रामराज्य की संज्ञा दी गई है।  ऐसे राज्य में प्रकृति सौम्य रूप में अवस्थित रहती है, सब कुछ सुव्यवस्थित होता है , सब प्राणी स्वस्थ होते हैं, सब प्रसन्न होते हैं, सबको समुचित भरण-पोषण प्राप्त होता हैं। महाकवि वाल्मी कि रामायण के प्रारम्भ में ही भावी रामराज्य का चित्रण करते हुए लिखते हैं - श्रीराम के राज्य में सब लोग प्रसन्न एवं सुखी होंगे। सब पुष्ट एवं सन्तुष्ट रहेंगे। सब धर्म में प्रतिष्ठित होंगे। सब सर्वदा स्वस्थ रहेंगे, किसी प्रकार को कोई व्याधि किसी को नहीं सतायेगी। कभी किसी को दुर्भिक्ष का कोई भय नहीं रहेगा।  कोई पिता पुत्रमरण का दु : ख नहीं झेलेगा। कोई स्त्री विधवा नहीं होगी। सब सदा पतिव्रत में निष्ठ रहेंगी। अग्नि से कोई अनिष्ट नहीं होगा। कोई

शीर्ष पर प्रतिष्ठित राजा धर्म का संरक्षक है

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भारतीय समाज कुटुम्ब , ग्राम , जाति एवं सम्प्रदाय जैसे अपने सहज संघटकों के माध्यम से स्वशासित है। इस स्वयंभू एवं स्वतन्त्र सार्वजनिक नीति के शीर्ष पर स्थित राजा के दो ही मुख्य कर्त्तव्य हैं। पहला , यह सुनिश्चित करना कि समाज के सब सहज संघटक एवं संस्थान पारस्परिक सामञ्जस्य बनाये रखते हुए अपने - अपने अधिकार क्षेत्रों में अपने - अपने कार्यों का समुचित सम्पादन करने में सक्षम बने रहें।  दूसरा , बाह्य आक्रमण से समाज की रक्षा करना । राजा बाहर के लोगों को समाज का बलशाली विभीषण रूप दिखाता है । अपने समाज की ओर अभिमुख होते ही वह सौम्य हितचिन्तक का रूप धारण कर लेता है। समाज के सन्दर्भ में भारतीय राजा को विधिनियमन का कोई अधिकार प्राप्त नहीं है। उसका कर्त्तव्य धर्म का विधान करना नहीं अपितु समाज के संघटकों के सहज अनुशासन की , उनके पूर्वप्रतिष्ठित देश-धर्म , जाति-धर्म एवं कुल-धर्म आदि की रक्षा करना है।  भारतीय सभ्यता में राजा से धर्म एवं प्रजा के संरक्षण के अतिरिक्त लोकरञ्जन की भी अपेक्षा की गई है। अपनी समस्त प्रजा को प्रसन्न रखना , उनका रंजन करना , किसी भारतीय राजा के लिये अनिवा

भारतीय राज्यका आधार ग्राम एवं समुदायमें है

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भारत के गृहस्थ ग्राम , वंश , जाति एवं सम्प्रदाय जैसे विभिन्न सामाजिक समूहों में व्यवस्थित है। भारतीय दृष्टि में समाज के ये सब सहज , स्वयंभूत एवं अवयवी संघटक सार्वजनिक नीतिक विधिसम्मत सहभागी हैं। इन संघटकों की अपने - अपने अधिकार - क्षेत्र की गतिविधियों और इनके मध्य पारस्परिक सामञ्जस्य से ही सार्वजनिक नीति की रचना होती है।  वस्तुतः समाज के सहज संघटकों की गतिविधियाँ और उनका पारस्परिक सामञ्जस्य ही भारत की सार्वजनिक नीति है। सार्वजनिक नीति एवं व्यवस्था के क्षेत्र में किसी आधुनिक राज्य से जिन - जिन कार्यों की अपेक्षा की जाती है वे सब कार्य भारत में समाज के इन सहज संघटकों के माध्यम से ही हुआ करते थे। आधुनिक राज्य के दो सबसे बड़े कार्य हैं- सार्वजनिक शान्ति व्यवस्था बनाये रखना और साधनहीनों , वृद्धजनों और अन्य असहायों के लिये सामाजिक सुरक्षा का प्रबन्ध करना। इन दो कार्यो पर राज्य की शक्ति एवं साधनों के बड़े भाग का नियोजन करना पड़ता है।  समृद्ध देशों के आधुनिक राज्यतन्त्र अपने सकल राष्ट्रीय उत्पादन का प्रायः एक - तिहाई भाग इन के कार्यों पर व्यय करते हैं। भारत में आज भी इन

द्रौपदी - सत्यभामा संवाद

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महाभारत के वनपर्व में द्रौपदी सत्यभामा से इन्द्रप्रस्थ के राजगृह में अपनी भूमिका एवं दिनचर्या का वर्णन इस प्रकार करती हैं मैं नित्य भिक्षा , बलि एवं श्राद्ध का सम्पादन करती हूँ। मैं ही विभिन्न पर्वों के समय स्थालीपाक यज्ञ सम्पन्न करती हूँ। में ही माननीय जनों का सम्मान - सत्कार करती हूँ। कुटुम्ब में प्रचलित जिन धर्मो को मैंने पूर्व में अपनी सास से सुन रखा है और अन्य भी जिन धर्मो को मैं स्वयं जानती हूँ , उन सबका मैं आलस्य त्यागकर दिन रात पालन करती हूँ ।  कुन्ती के बुद्धिमान् पुत्र युधिष्ठिर की शतसहस्र दासियाँ हाथों में भोजन के पात्र लिये दिन - रात अतिथियों को खिलाने में तत्पर रहती थीं। जब इन्द्रप्रस्थवासी राजा युधिष्ठिर प्रवास पर निकलते थे तो शतसहस्र हाथी और शतसहस्र अश्व उनका अनुसरण करते थे। उन दिनों जब युधिष्ठिर इन्द्रप्रस्थ में रहकर पृथ्वी का परिपालन करते थे, तब ऐसा उनका वैभव हुआ करता था। तब मैं ही उन असंख्यात दासियों , अश्वों एवं हाथियों आदि की गणना करती थी। मैं ही उनके लिये आवश्यक वस्तुओं का प्रबन्ध करती थी और मैं ही उनकी समस्याएं सुनती थी।  अन्तःपुर के समस्त

भारतीय गृहके केन्द्रमें स्त्री प्रतिष्ठित है

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गृहस्थ के सामाजिक , आर्थिक एवं नैतिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह कुटुम्ब के सब सदस्य संयुक्त रूप से करते हैं। परन्तु भारतीय सभ्यता में स्त्री गृह एवं कुटुम्ब के केन्द्र पर स्थित है। महाभारत में कहा गया है कि गृहिणी ही गृह है। वेद में कहा गया है कि स्त्री गृह की साम्राज्ञी है।  मनु का विधान है कि गृह का प्रारम्भ विवाह से होता है और स्वयं भोजन करने से पूर्व सृष्टि के सब भावों के लिये सम्यक् भागांश निकालने के गृहस्थ के प्राथमिक कर्त्तव्य का पालन पुरुष और पत्नी को मिलकर ही करना होता है। पंचमहायज्ञ के नित्यकर्म का सम्पादन दम्पति मिलकर ही करते हैं। महाभारत के वनपर्व में द्रौपदी इन्द्रप्रस्थ के राजगृह में अपनी दिनचर्या का वर्णन करते हुए भारतीय गृह में स्त्री को केन्द्रीय भूमिका एवं उत्तरदायित्व का विशद चित्र प्रस्तुत करती हैं।  गृह में स्त्री का यह उच्च स्थान दीर्घकाल तक प्रतिष्ठित रहा है।  उन्नीसवीं ईसवी शताब्दी के तंजावुर राज्य के एक अभिलेख में वहाँ के राजगृह की राज्ञियों द्वारा अनेक लोगों के भोजन को व्यवस्था करने का वर्णन हुआ है। इस वर्णन में तंजावुर की राज्ञियाँ महाभ

भारतीय गृह के केन्द्र में स्त्री प्रतिष्ठित है

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गृहस्थ के सामाजिक , आर्थिक एवं नैतिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह कुटुम्ब के सब सदस्य संयुक्त रूपसे करते हैं। परन्तु भारतीय सभ्यता में स्त्री गृह एवं कुटुम्ब के केन्द्र पर स्थित है। महाभारत में कहा गया है कि गृहिणी ही गृह है। वेद में कहा गया है कि स्त्री गृह की साम्राज्ञी है।  मनु का विधान है कि गृह का प्रारम्भ विवाह से होता है और स्वयं भोजन करने से पूर्व सृष्टि का सब भावों के लिये सम्यक् भागांश निकालने के गृहस्थ के प्राथमिक कर्त्तव्य का पालन पुरुष और पत्नी का मिलकर ही करना होता है। पञ्चमहायज्ञ के नित्य-कर्म का सम्पादन दम्पति मिलकर ही करते हैं।  महाभारत के वन पर्व में द्रौपदी इन्द्रप्रस्थ के राजगृह में अपनी दिनचर्या का वर्णन करते हुए भारतीय गृह में स्त्री की केन्द्रीय भूमिका एवं उत्तरदायित्व का विशद चित्र प्रस्तुत करती हैं।  गृह में स्त्री का यह उच्च स्थान दीर्घकाल तक प्रतिष्ठित रहा है। उन्नीसवी ईसवी शताब्दी के तंजावुर राज्य के एक अभिलेख में वहाँ के राजगृह की राज्ञियों द्वारा अनेक लोगों के भोजन की व्यवस्था करनेका वर्णन हुआ है।  इस वर्णन में तंजावूर को र

गृहस्थ भारतीय समाजका आधारस्तम्भ है

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भारती य सभ्यता में इस सृष्टि के मौलिक ऐक्य एवं इसमें सर्वव्याप्त ब्रह्म का दर्शन तो हुआ ही है , इस दर्शन के अनुरूप जीवन यापन करने के लिये सम्यक् सामाजिक व्यवस्था का विधान भी यहाँ कर दिया गया है।  भारतीय समाज व्यवस्था भी वैसी ही विशिष्ट भारतीयता लिये हुए है जैसी सृष्टि सम्बन्धी भारतीय दर्शन में परिलक्षित होती है। भारतीय सभ्यता में सृष्टिके समस्त भावों का भरण-पोषण करने का उत्तरदायित्व प्रमुखतः धर्मनिष्ठ , अनुशासित एवं समर्थ गृहस्थों का है। महाभारत में भगवान् शंकर उमाजी से कहते हैं कि सृष्टि के सैंकड़ों - सहस्रों चराचर गृहस्थ के ही आश्रय में हैं, वे सब - के - सब गृहस्थ के धर्मसम्मत का से अर्जित भोगों का ही उपभोग करते हैं।  राजा, अमात्य, सैनिक एवं विद्वान् - विचारक आदि सब और दूर - दूर से चलकर आ रहे पाथेयरहित पथिक भी भरण - पोषण के लिये गृहस्थ पर ही निर्भर हैं। भारतीय सामाजिक , आर्थिक एवं नैतिक व्यवस्था की मूल इकाई गृहस्थ है और गृहस्थ इस महान् दायित्व का निर्वाह अकेले नहीं अपने समस्त कुटुम्ब को साथ लेकर ही करता है।

भारत अपनों का भरणपोषण करना जानता है

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चीनी बौद्ध विद्वान् फाह्यान पाँचवी शताब्दी के प्रारम्भ में भारत यात्रा पर आये। उनके यात्रावृत्त में मगधराज्य का वर्णन इस प्रकार हुआ है इस देश के सामन्तों एवं गृहस्थों ने नगर में चिकित्सालयों की स्थापना की है। सब दिशाओं से दरिद्र असहाय विकलांग एवं रोगी इन चिकित्सालयों में पहुँचते हैं।  वहाँ इन्हें सब प्रकार की आवश्यक सहायता निःशुल्क प्राप्त होती है। चिकित्सक उनके रोग का निदान करते हैं और आवश्यकतानुसार उनके लिये भोजन , पेय , औषध एवं अनुपान आदि की व्यवस्था की जाती है। वस्तुतः उनके व्याधि - शमन के लिये सब वांछनीय पदार्थ उन्हें उपलब्ध करवाये जाते हैं। स्वस्थ होने के उपरान्त वे अपनी सुविधानुसार वहाँ से प्रस्थान करते हैं।

संरक्षण एवं संविभाग भारतीयताका मूल है

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समस्त सृष्टि में ऐक्य एवं ब्रह्मत्व के ज्ञानसे सम्पन्न भारतीयों ने सृष्टि के सब भावों का संरक्षण एवं पोषण करने के दायित्व को मानव जीवन के अनुल्लङ्घनीय अनुशासन की प्रतिष्ठा दी है। सनातन धर्म की सब अनुशासित एवं समर्थ गृहस्थों से यह अपेक्षा है कि वे स्वयं उपभोग की ओर प्रवृत्त होने से पूर्व अपने दायित्व क्षेत्र में आनेवाले सृष्टिके समस्त भावों के लिये समुचित भागांश निकालें , स्वयं भोजन करने से पूर्व अन्य सबकी क्षुधा का शमन करें।  भारतीय सभ्यता में इस अनुशासन का उल्लङ्घन कर समस्त सृष्टि का संरक्षण एवं भरण - पोषण करने के दायित्व की उपेक्षा करने वालो को चोर - समान माना गया है। श्रीकृष्ण ने स्वयं श्रीमद्भगवद्गीता में भारतीयों को यह शिक्षा दी है कि सब भोग सृष्टि के समस्त भावों की उदारता से ही हमें प्राप्त होते हैं , इस प्रकार समस्त भावों के अंशदान से प्राप्त हुए भोगों को उन भावों में संविभाजित किये बिना जो अकेला स्वयं उनका उपभोग करता है , वह वस्तुतः चोर ही है।  तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः ईशोपनिषद्का उपदेश है कि इस जगत में जो है वह सब उस एक ब्रह्म से व्

भारत ने समस्त सृष्टि में ऐक्य एवं अनुशासित क्रम का दर्शन किया है

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एको देव: सर्वभूतेषु गूढ: सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा| कर्माध्यक्ष: सर्वभूताधिवास: साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च || एक ही देव सभी पदार्थों में विराजमान है (गूढ़ः = छिपा है रहा है ) वह सर्वव्यापी है और वह अन्तर्यामी है। (सभी जीवों में बसता है ) वही कर्मों का अध्यक्ष है वही सब में वास करता है और सबका साक्षी है वही सबकी चेतना है और वह निर्गुण है । भारत की मान्यता है कि समस्त सृष्टि एक ही ब्रह्म की बहुरूप अभिव्यक्ति है । सृष्टि के समस्त भावों के प्रति गहन सम्मान एवं श्रद्धा रखने का मूल अनुशासन इसी मान्यता में आश्रित है । ब्रह्म सृष्टि के विभिन्न भावों में अपने आपको अभिव्यक्त करता है और युग के अन्त पर उन सब भावों का पुनः अपने आप में संकुचन कर लेता है। यह सब जो है वह ब्रह्म के व्यास एवं संकुचन की लीला ही है। सृष्टि लीला है। परन्तु यह लीला अमर्यादित नहीं है। व्यास एवं संकुचन की यह लीला निश्चित कालक्रम के अनुरूप चलती है।  समस्त सृष्टि काल के इस अनुशासन से बद्ध है , स्वयं ब्रह्म भी काल से मर्यादित है। ब्रह्म की इस अनादि अनन्त लीला का आभास कदाचित् प्रत्येक भारती

समस्त सृष्टि के साथ सामञ्जस्य भारत का मूल भाव है

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भारत भूमि को अतुलनीय प्राकृतिक सम्पदा एवं उर्वरता प्राप्त है और यह विपुल समृद्धि विश्व की सर्वाधिक अगम्य प्राकृतिक सीमाओं में सुरक्षित है। भारतवर्ष का व्यापक विस्तार है , परन्तु यह व्यापकता इतनी सुगठित है कि भौगोलिक दृष्टि से यह देश किसी अलौकिक द्वीप - सा ही दिखाई देता है।  इस अत्यन्त सुरक्षित एवं अत्यन्त उर्वरा भूमि पर भारत के लोग अनादिकाल से बाह्य आक्रमण एवं आन्तरिक अभाव के भय से मुक्त होकर सहज समृद्ध जीवनयापन करते आये हैं। दीर्घकाल के इस सहज समृद्ध जीवन से इस भूमि पर सर्वत्र व्याप्त एक समरस सभ्यता विकसित हुई है। भारत की इस समरस सभ्यता का आश्रय स्थान सनातन धर्म में है। अपने भव्य , समृद्ध एवं अभेद्य भूखण्ड में रहते हुए भारतीयों ने अपने आप में , प्रकृति में और वस्तुतः समस्त सृष्टि में सामञ्जस्य का दर्शन किया है।  सृष्टि के किसी भावमें वैपरीत्य की कल्पना भी उन्होंने नहीं की। सनातन धर्म के गर्भ में सृष्टि के समस्त भावों के प्रति अत्यन्त सम्मान एवं श्रद्धा का भाव ही प्रतिष्ठित है। समस्त सृष्टि के प्रति सम्मान एवं श्रद्धा का भाव रखना और समस्त सृष्टि के मध्य सामञ्जस्