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Showing posts from July, 2021

समाजनीति और भारत

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राष्ट्र निर्माण के कार्य में प्रमुख महत्त्व लोगों के उत्साह एवं निष्ठा का ही होता है। राष्ट्र के लोग जब आत्मविश्वास एवं दृढ़ संकल्प के साथ अपने किसी लक्ष्य की ओर चल निकलते हैं तो उस लक्ष्य तक पहुँचने के लिये समुचित साधनों , तकनीकों एवं व्यवस्थाओं आदि का सृजन तो वे सहज ही करते चले जाते हैं ।  बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में महात्मा गाँधी ने भारतवर्ष में ऐसे ही दृढ़ संकल्प एवं आत्मविश्वास का संचार किया था और तब भारत के लोगों ने अपनी समस्त शक्ति को सहेजकर अपने - आप को स्वतन्त्रताप्राप्ति के महान् कार्य में लगा दिया था । उस संकल्प एवं विश्वास के बलपर हम न केवल अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हुए , अपितु अपने उस अभूतपूर्व स्वतन्त्रता - संग्राम को सम्पन्न कर हमने सम्पूर्ण विश्वको अनेक विलक्षण विचारों एवं विधाओं से समृद्ध किया।  स्वतन्त्रताप्राप्ति के पश्चात् हमने स्वतन्त्रता - संग्राम के दिनों के उस दृढ़ संकल्प एवं अविचल आत्मविश्वास को कहीं खो दिया है। दीर्घ राजनैतिक दासता ने हमें वैचारिक एवं व्यावहारिक तमस के गहन अन्धकार में धकेल दिया था। महात्मा गाँधी...

भारत भूमि की विपुल प्राकृतिक उर्वरता

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भारत भूमि को विपुल प्राकृतिक उर्वरता , प्रचुर जल एवं असीम धूप प्राप्त हुई है । भारत के लोगों ने प्रकृति की इस विशिष्ट अनुकम्पा को कृतज्ञता पूर्वक स्वीकार किया है। अत्यन्त प्राचीन काल से ही वे इस प्राकृतिक प्राचुर्य का समुचित नियोजन करने के लिये कृषि के विभिन्न क्षेत्रों में उच्चतम दक्षताएँ विकसित करने को कृतसंकल्प रहे हैं ।  चौथी शताब्दी ईसापूर्व के यूनानी योद्धा सिकन्दर से लेकर अठारहवीं ईसवी शताब्दी के प्रायः अन्त के यूरोपीयों तक भारत में आने वाले प्रायः सब पर्यवेक्षक भारतीय कृषकों की उपज के बाहुल्य को देखकर स्तब्ध होते रहे हैं । हल चलाना , खाद देना , सिञ्चाई करना , बीजों का चयन , शस्यों का आवर्तन , भूमि परती रखना जैसी कृषि - सम्बन्धी समस्त विधाओं में भारतीय कृषकों की परिष्कृत तकनीकों से वे प्रभावित  हुए हैं । कृषि के विविध कार्यों के लिये भारत के विभिन्न भागों में विकसित सादे - सरल तथापि पूर्णत : कार्यक्षम उपकरणों ने उन्हें विस्मित किया है । उपलब्ध ऐतिहासिक स्रोत प्रमाणित करते हैं कि प्रायः अर्वाचीन काल तक भारतीय विश्व के सर्वोत्तम कृषक रहे हैं । विभि...

अनन्य भारतीय संस्कृति

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भारत की भौगोलिक अभेद्यता में भारतीय संस्कृति को अनन्यता का रहस्य निहित है। भारतीय चिन्तन एवं भारतीय संस्थानों का अन्य किसी सभ्यता से कोई सादृश्य नहीं है। भारतीय चिन्तन एवं संस्थानों का अपना एक विशिष्ट रूप है , उनका अपना ही एक विशिष्ट भाव है।  विदेशों से यदा-कदा भारत में पहुँच जाने वाले तत्व भारतीय चिन्तन एवं संस्थानों के अनुसार रूपान्तरित हो उन्हीं में समाहित होते गये हैं । बाह्य - शक्तियों ने भारत पर राजनैतिक विजय चाहे कभी पायी हो , सभ्यता एवं संस्कृति के स्तर पर भारत कभी विजित नहीं हुआ। भारत को यह विशिष्ट संस्कृति भारत के सम्पूर्ण भौगोलिक क्षेत्र के प्रायः समस्त भागों में व्याप्त है।  सब स्थानों पर यह विशिष्ट भारतीय संस्कृति स्थानीय एवं देशज विविधताओं से प्रभावित एवं रूपान्तरित हुई है। परन्तु भारतीय उपमहाद्वीप में उपस्थित किसी प्रकार के कोई भौगोलिक अथवा सामाजिक प्रतिरोध इस सर्वसामान्य मूलभूत संस्कृति के सब स्थानों पर व्याप्त होने में बाधा नहीं बन पाये। भारत की यह मूलभूत संस्कृति अपने भीतर अनेक विविधताएँ समेटे हुए है, तथापि इसकी विशिष्ट भारतीयता सब स्थ...

भारत भूमि एक अभेद्य दुर्ग-सी है

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प्रकृति ने भारत भूमि को दुर्लभ उर्वरता एवं अन्य सम्पदाओं से कृतार्थ तो किया ही है , इस भूमि को किसी अभेद्य दुर्ग जैसी सुरक्षित भौगोलिक संरचना से मण्डित भी कर दिया है। हिमालय पर्वत की उच्च प्राचीर भारत भूमि की ओर बढ़ने के किसी विदेशी दुःसाहस को सर्वदा प्रतिरोधित करती रही है।  उत्तर में हिमालय के उत्तुङ्ग शिखर हिमाच्छादित रहते हैं , किसी सम्भावित आक्रान्ता के लिये उन्हें लाँघ पाने का प्रश्न ही नहीं उठता। उत्तर-पूर्व में भारी वर्षा होती है , जिससे इस क्षेत्र में बर्मा (म्यांमार) व भारत के मध्य पड़ने वाली तीखी पर्वतीय ढलाने व गहरी घाटियाँ सघन जंगलों से ढक गयी हैं और इनमें तीक्ष्ण प्रवाह वाली असंख्य सरिताएँ बहती हैं।  उत्तर पश्चिम में ऊँची पर्वत श्रेणियाँ तो हैं, परन्तु वर्षा की न्यूनता के कारण सघन वनस्पति का कवच यहाँ नहीं है। इस दिशा में स्थित कतिपय ऊँचे पर्वतीय मार्गों से भारत में प्रवेश सम्भव है। परन्तु भूमि की अनुर्वरता के कारण यहाँ जनसंख्या विरल है और इस क्षेत्र से पार पाना अत्यन्त कठिन है। अतः इस उत्तर - पश्चिमी सीमा की रक्षा करना अपेक्षाकृत सरल रहा है...

भारत की समृद्धि पर विश्व स्तब्ध था

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असीम व्यापकता एवं गाम्भीर्य वाली नदियाँ, दुर्लभ उर्वरता से सम्पन्न विस्तीर्ण भूमि, सदा चमकती धूप, असाधारण बल बुद्धि एवं वैविध्य से युक्त असंख्य पशु - पक्षी और स्वस्थ स्वत्वसम्पन्न गरिमामय अपार जन-समुदाय-प्राचीन काल से बाहर के लोग भारत की ऐसी ही छवि देखते रहे हैं। इसी छवि का चित्रण भारत-सम्बन्धी प्रायः समस्त बाह्य वृत्तान्तों में मिलता है।  भारतीय सभ्यता के स्रोत ग्रन्थों में यही गुण किसी सभ्यता की समृद्धि के मूल लक्षण माने गए हैं। भारत में पहुँचने वाले विदेशी लोग यहाँ की भूमि, नदियों, धूप, पशु-पक्षियों और लोगों की अपार सहज सम्पदा एवं व्यापकता को देख कर सर्वदा स्तब्ध होते रहे हैं। यूनानी योद्धा सिकन्दर के युद्धवृत्तों की भाषा एवं भाव में सिकन्दर के भारत वर्ष की परिधि में पहुँचते ही अकस्मात् आश्चर्य जनक परिवर्तन दिखाई देता है।  सिकन्दर अपने समय के विश्व की बड़ी सभ्यताओं के व्यापक क्षेत्र को लाँघकर भारत पहुंचा था। परन्तु उस समय के यूनानी वृत्तों से ऐसा प्रतीत होता है मानो वह तब तक किन्हीं जनविरल विस्तारों से ही निकलता आया हो। भारत भूमि के निकट पहुँचते ही उ...

विश्व का सर्वाधिक जनाकीर्ण देश भारत

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भारत भूमि असाधारण प्राकृतिक सम्पदा से अभिमण्डित है। अतः स्वाभाविक ही है कि इस भूमि पर व्यापक जनसमाज का भरण-पोषण होता रहा है। प्रायः आधुनिक काल तक भारतीय सभ्यता विश्व की अन्य सब बड़ी सभ्यताओं की तुलना में अधिक जनसंकुल रही है।  जनसांख्यि की विज्ञान के आधुनिक विद्वानों के अनुमानानुसार सोलहवीं ईसवी शताब्दी के अन्त तक भारत की जनसंख्या विश्व में सर्वाधिक थी। चीन भारत के तुरन्त पीछे दूसरे स्थान पर हुआ करता था। फ़रिश्ता का 1600 ईसवी का अनुमान है कि 1100 ईसवी में भारत की जनसंख्या 60 करोड़ थी। पश्चिमी विद्वानों के अनुसार उस समय सम्पूर्ण यूरोपीय क्षेत्र की जनसंख्या मात्र दस करोड़ थी।  भारतीय सभ्यता के अनेक स्रोतग्रन्थ एकमत हैं कि भारत भूमि पर पाँच लाख ग्रामों का वास है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहा गया है कि एक ग्राम में एक से पाँच सौ तक कुटुम्ब होते हैं। इसका तात्पर्य है कि भारतीय सभ्यता के उत्कृष्ट कालों में भारत में पाँच से पच्चीस करोड़ तक कुटुम्ब हुआ करते थे।  आज भारतीय विश्व के बड़े समुदायों में चौथे स्थान पर आते हैं। यूरोपीय, चीनी और मुसलम...

भारत की खनिज सम्पदा

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भारत भूमि पर अपार खनिज सम्पदा उपलब्ध है। इस सम्पदा के आधारपर भारतकी औद्योगिक विकासको सम्भावनाएँ विश्वमें तीसरे स्थानपर आँकी जाती हैं । भारत में लौह - अयस्क के प्रचुर , व्यापक एवं उत्कृष्ट भण्डार हैं । लौह - अयस्कके प्रमाणित भण्डारों की मात्रा 12 अरब टन है। हमारे आज के उत्पादन एवं उपयोग के स्तर पर ये भण्डार 300 वर्षों के लिये पर्याप्त हैं।  भारत में 2 खरब 20 अरब टन कोयले एवं भूरे कोयले के भण्डार हैं। भारतीय कोयले में राख का अंश किञ्चित् अधिक होता है, परन्तु उत्खनन और उपयोग के वर्तमान स्तर पर ये भण्डार 750 वर्षों तक पर्याप्त हैं। अपेक्षाकृत नवीन धातुओं के अयस्कों के विषय में भारत और भी समृद्ध है। एल्यूमिनियम - अयस्क बॉक्साइट के भारतीय भण्डार विश्व के सबसे बड़े भण्डारों में गिने जाते हैं। इल्मेनाइट के प्रमाणित भारतीय भण्डार विश्व में सर्वाधिक हैं । ' विरल - मृदा ' नामक विशिष्ट खनिजों के भारतीय भण्डार केवल चीन से न्यून पड़ते हैं। विरल - मृदाओं में से एक थोरियम के भारत में 3 लाख 60 सहस्र टनके भण्डार हैं। ये भण्डार 10 लाख मेगावाट की नाभिकीय ऊर्जाकी क्षमता स्था...

भारत की वनस्पति एवं पशु सम्पदा

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भारत भूमि उर्वरा मृदा, प्रचुर जल एवं उष्ण-सिक्त जलवायु से सम्पन्न है। अतः यहाँ वनस्पतियों, पशु पक्षियों एवं जीव-जन्तुओं की अनन्त जातियाँ सहज सम्भव हैं। भारतमें वनस्पतियों की 45 सहस्र (हज़ार) जातियाँ पायी जाती हैं । इनमें से 35 प्रतिशत भारतीय क्षेत्र की विशिष्ट जातियाँ हैं, ये विश्व में कहीं अन्यत्र प्राकृतिक रूप में नहीं मिलती।  विश्व के वानस्पतिक वैविध्य से सर्वाधिक सम्पन्न क्षेत्रों में भारत की गणना होती है । भारत में पशु-पक्षियों एवं जीव - जन्तुओं की 75 सहस्र जातियाँ मिलती हैं। यह इस धरा पर उपलब्ध प्राणिजगत्की समस्त जातियों का बारहवाँ भाग है। भारत भूमिका भौगोलिक विस्तार पृथिवी का मात्र चालीसवाँ भाग है। भारत अपने यहाँ पाये जानेवाले सूक्ष्मजीवियों के वैविध्य के लिये भी विख्यात है।  भारतवासी प्राचीनकाल से अपने वनस्पति एवं प्राणि जगत का गहनता से अध्ययन करते रहे हैं। चरकसंहिता एवं सुश्रुतसंहिता जैसे आयुर्वेद के स्रोतग्रन्थों में वर्णित वनस्पतियों , पशु - पक्षियों एवं जीव-जन्तुओं की संख्या असाधारण है। वनस्पति एवं प्राणिजगत के ज्ञान की व्यापकता एवं गहनता में...

धूप और ऊष्मा का देश

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हिमालय उर्वरा मृदा और जीवनदायी जल से भारत-भूमिका पोषण तो करते ही हैं साथ ही प्रचुर शस्य के उत्पादन के लिये अनिवार्य ताप एवं ऊष्मा का संरक्षण भी करते हैं। भारतीय भूखण्ड पृथिवी के उष्णकटिबन्धीय क्षेत्र में नहीं आता। समस्त भारत भूमि भूमध्यरेखा के उत्तर में स्थित है और इसका 60 प्रतिशत भाग कर्क रेखा के ऊपर है।  इस भौगोलिक स्थिति के अनुरूप भारत-भूमि के अधिकतर भाग को शीतोष्ण प्रदेश के अन्य देशों की भाँति अत्यन्त ठण्डा होना चाहिये। परन्तु उत्तर में खड़ी हिमालय की अत्युच्च प्राचीर उत्तर से आने वाली हिमानी पवनों को भारत के बाहर रोक देती है और उष्णकटिबन्धीय समुद्रों से उठने वाली तप्त एवं सिक्त पवनों को भारत भूमि से बाहर नहीं जाने देती। यह विशिष्ट भौगोलिक संरचना भारत भूमि के जल-वायु को उष्ण एवं आर्द्र बनाये रखती है। इस प्रकार भारत वर्ष सघन शस्यों (खेत मे उपजने वाला अन्न) के उत्पादन एवं विविध रूपों में जीवन के प्रफुल्लित होने के लिये पृथ्वी पर आदर्श स्थान-सा बन गया है। सूर्य-भगवान की भारत भूमि पर विशेष कृपा है। इस विस्तृत भूखण्ड के प्रायः प्रत्येक भाग पर वर्ष में प्रतिदिन धूप चमकती ...

विपुल वर्षा का देश भारत

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भारत में वर्षा का परिमाण एवं यहाँ की उर्वरा भूमि की पर्याप्त शस्य उत्पन्न करने की क्षमता मानसून पर निर्भर हैं। 'मानसून' अरबी शब्द 'मौसम' का अंग्रेज़ीकृत रूप है। भारत में इसे वर्षाऋतु कहा गया है। भारत में होने वाली कुल वृष्टिका 90% वर्षाऋतु के आसपास के तीन महीनों में बरसता है। इस सघन वृष्टि से देश के प्रायः समस्त भाग आप्लावित हो जाते हैं।  वर्षा के इस प्राचुर्य से वंचित रहने वाले दो ही क्षेत्र हैं। पहला , सिन्धु का मैदान, जिसमें सिन्ध प्रदेश , राजस्थान , पंजाब , उत्तरपश्चिमी - सीमाप्रदेश और बलूचिस्तान के कुछ भाग सम्मिलित हैं और दूसरा, पूर्वी तटपर स्थित रामनाथपुरम् और शिवगंगा के आसपास के सुदूर दक्षिणी भाग।  जलगर्भित पवनों को लाने और उनकी समस्त जलराशि भारत भूमि पर ही न्योछावर करवा देने में हिमालय - पर्वतकी विशेष भूमिका है। हिमालय के उत्तर में स्थित तिब्बतको तो इस विपुल जल राशिका किंचित भाग भी प्राप्त नहीं हो पाता। भारतीय भूखण्ड में वार्षिक वृष्टि की कुल मात्रा 105 सेंटीमीटर है। यह मात्रा पर्याप्त बड़े आकार के विश्व के किसी भी भूखण्ड की अपेक्षा अधिक है।  ...

भारतकी अन्य महान नदियाँ

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महान सभ्यताओं को जन्म देती हैं। विश्व की अधिकतर प्रमुख सभ्यताओं का उदय किसी एक महान् नदी अथवा किसी नदीद्वयपर ही हुआ है। मिस्र की सभ्यता का उद्भव नील नदी के तटपर हुआ। मेसोपोटेमिया युफरेट्स एवं टिग्रिस नदियों पर पनपी। यूरोपीय सभ्यता दान्यूब नदी से उत्पन्न एवं पोषित हुई।  भारत विश्व का कदाचित् एकमात्र ऐसा भूखण्ड है जिस पर एक - दो नहीं अपितु अनेक महान् सभ्यताकारिणी नदियाँ प्रवाहित हो रही हैं। इन नदियों में से प्रत्येक विश्व की किसी महान् सभ्यता को जन्म देने एवं पोषित करने में समर्थ है।  भारत भूमि पर उत्तर से दक्षिण की ओर चलना प्रारम्भ करें तो पहले सिन्धु नदी और उसकी सहायक पंजाब की पाँच नदियों के दर्शन होते हैं। आगे, भारत के मध्य में, यमुना, सरयू, गण्डक, कोसी और इन सबको अपने में समाहित करती हुई गंगा नदी प्रवाहित हो रही है और आगे पूर्व में ब्रह्मपुत्र आसाम एवं बांग्लादेश के मैदानों से बहती हुई गंगा में आ मिलती है। नर्मदा और तपती पूर्व से पश्चिमकी ओर बहती हुई दक्षिणापथीय पठार के उत्तरी भाग और मध्यप्रदेश , गुजरात एवं महाराष्ट्र के अनेक भागों का सिंचन करती हैं।  ...

पुण्यसलिला माँ गंगा

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सिन्धु ,गंगा और ब्रह्मपुत्रकी गणना विश्व की महानतम नदियों में होती है। इनमें गंगा का अपना विशिष्ट स्थान है। पुण्यसलिला गंगा की भौतिक एवं आध्यात्मिक  जीवनशक्ति का स्रोत है। महागङ्गोत्री से गङ्गासागर तक गङ्गा के प्रवाह का विस्तार 2,525 किलोमीटर है। गङ्गा नदी में प्रति सेकेंड 38,000 घनमीटर जल प्रवाहित होता है। प्रवाह की मात्रा के मापदण्ड पर गङ्गा विश्व की तीसरी सबसे बड़ी नदी है । केवल दक्षिण अमरीका की अमेज़न (1,000,00 घनमीटर प्रतिसेकेंड ) और अफ्रीकाकी कोंगो नदी (43,000 घनमीटर प्रति सेकेंड ) का प्रवाह गङ्गा से अधिक है। गङ्गा प्रतिवर्ष 36 करोड़ टन मृदा हिमालय से लाकर भारत भूमि को उर्वर करती है। मृदा की मात्रा के मापदण्ड पर केवल चीन को हुआंगहे एवं चांगजिआंग नदियाँ और अमरीका की मिस्सीसिप्पी नदी गङ्गासे आगे हैं। हुआंगहे तो कीचड़ की ही नदी है , इसीलिये इसे पीली नदी भी कहा जाता है।  गङ्गा मात्र आँकड़ों के कारण महान् नहीं है । गङ्गानदी अत्यन्त मन्थर गति से भारत के मर्म प्रदेश से प्रवाहित होती हुई यहाँ की भूमिको भलीभाँति और अत्यन्त गहराई तक जल एवं मृदा से समृद्ध कर...

सिन्धु- गंगा मैदान

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हिमालय पर्वत का जल सिन्धु , गंगा , ब्रह्मपुत्र एवं इनकी अनेक सहायक नदियों के मार्ग से भारत भूमि पर प्रवाहित होती है । यह जल अपने साथ विपुल मात्रा में जीवनदायिनी मृदा लेकर आता है। अनादिकाल से भारत भूमि को आच्छादित करती चली आ रही हिमालयकी इस उर्वर मृदा से सिन्धु - गंगा के इस भव्य मैदान का निर्माण हुआ है।  यह मैदान अपनी प्राचीनता , विशालता , उर्वरता , समतलता एवं गहराई के लिये विश्व भर में विख्यात है। पश्चिममें सिन्धुसागर से लेकर पूर्वमें गंगा सागर तक विस्तृत यह मैदान 3,000 किलोमीटर लंबा और 250 किलोमीटर चौड़ा है। इस मैदान का विस्तार भारत भूमिके कुल क्षेत्रफल के पाँचवे भाग के समान है। इतना विशाल यह क्षेत्र पूरे - का - पूरा कृषियोग्य है और यह विश्व के सर्वाधिक उर्वर क्षेत्रा में से एक है। पचास के दशक में तब सद्यस्वतन्त्र भारतकी सहज सम्पदाओं का आकलन करते हुए एक अमरीकी समाजविज्ञानी इस मैदान का वर्णन करते हैं। नदियों के आप्लावन से प्रतिवर्ष इस मैदान की मिट्टी के बड़े भाग का नवीनीकरण हो जाता है। इस प्रकार नदियों द्वारा पहाड़ों से लायी गयी यह मिट्टी अत्यन्त मृदु एवं सू...

हिमालयसे संरक्षित एवं संवर्धित भूमि

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भारतीय भूखण्ड की विशिष्टता का रहस्य हिमालय में निहित है। हिमालय विश्व का महानतम पर्वत है। भारत भूमि के उत्तर में फैली इस 2,400 किलोमीटर लंबी और 150 से 400 किलोमीटर चौड़ी पर्वत भूखला को प्रायः  "भारत भूमि के शीर्ष" की संज्ञा दी जाती है। विश्व के सर्वोच्च तीन पर्वत शिखर हिमालय के अङ्ग है। 29,028 फ़ीट ( 8,848 मीटर ) ऊँचे गोरीशंकर का स्थान विश्व में प्रथम है जिसे नेपाल में सागरमाथा और विश्व में माउंट एवरेस्ट के नाम से भी जाना जाता है और 28,250 फ़ीट (8,611 मीटर) ऊँचा कोगिर एवं 28,208 फ़ीट (8,596 मीटर) ऊंचा काशनजंगा जिसे कंचनजंगा के नाम से भी जाना जाता है जैसे शिखर क्रमशः दूसरे और तीसरे स्थान पर आते हैं। इनके अतिरिक 25,000 फ़ीट से अधिक ऊंचाई के प्रायः 50 अन्य शिखर हिमालय श्रृंखला में स्थित है । इस पर्वत शृंखला के की मध्य ऊंचाई 15,000 फ़ीट है। लंबाई , चौड़ाई और ऊँचाई में हिमालय विश्व में अतुलनीय है। परन्तु हिमालय की महत्ता मात्र इन आंकड़ों में नहीं है।  भारतवर्ष के मानचित्र में हिमालय पर्वत अपने पूर्वी एवं पश्चिमी छोरों पर दक्षिण की ओर मुड़ती गोण श्रृंखलाओं के साथ...

विश्वका सबसे बड़ा कृषिक्षेत्र

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भारतवर्ष विस्तारमें विश्वकी कतिपय बड़ी भौगोलिक एवं राजनैतिक इकाइयों से लघु अवश्य है , परन्तु उन सबसे कहीं अधिक सुगठित एवं सुसज्जित है। अपने अपेक्षाकृत सीमित आकार में हमारी यह भूमि विश्व के सबसे बड़े कृषिक्षेत्र को संजोये हुए है। भारतवर्ष के प्रायः 60 प्रतिशत भागपर कृषि सम्भव है। विश्वके अन्य वृहद् एवं सम्पन्न क्षेत्रों का 20 प्रतिशत से अधिक भाग कृषियोग्य नहीं होता । विश्वके कुल भूक्षेत्र के केवल 10 प्रतिशत पर ही खेती की जा सकती है।  प्रकृतिको इस विशेष उदारता के परिणाम स्वरूप भौगोलिक क्षेत्र की दृष्टि से विश्व में सातवें स्थान पर आने वाली भारत भूमि कृषि योग्य भूमि के मापदण्डपर विश्व में प्रथम स्थान पर पहुँच जाती है। भारतवर्ष का 19 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र कृषियोग्य है , इसमें से 16 करोड़ हेक्टेयर भारतीय संघ के भाग में आता है। अमरीको संयुक्तराज्य का कुल कृषियोग्य क्षेत्र 17 करोड 70 लाख हेक्टेयर , रूसी संघका 12 करोड 60 लाख हेक्टेयर , चीनका 12 करोड 40 लाख हेक्टेयर , पश्चिमी यूरोप का 7 करोड 70 लाख हेक्टेयर , ऑस्ट्रेलियाका 5 करोड 60 लाख हेक्टेयर और ब्राज़ील का 5 करोड 30 लाख हेक...

विस्तीर्ण एवं समृद्ध भूमि

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भारतवर्ष विश्वके अति - विस्तीर्ण भूखण्डोंमें से एक है । कश्मीर से कन्याकुमारी तक उत्तर - दक्षिण दिशा में 3,200 किलोमीटर और आसाम से बलूचिस्तान तक पूर्व - पश्चिम दिशा में 3,500 किलोमीटर तक इसका विस्तार है। कुल 42 करोड 35 लाख हेक्टेयर का विशाल क्षेत्र इसकी परिधि में आता है।  ऐतिहासिक और भौगोलिक दृष्टि से यह सम्पूर्ण क्षेत्र सर्वदा एकात्म अभिन्न भारत-भूमि के रूप में जाना जाता रहा है। आज यह भूमि भारतीय संघ , पाकिस्तान और बांग्लादेश को तीन स्वतन्त्र राजनतिक इकाइयों में विभाजित है। भारतवर्ष का कुल 42 करोड 35 लाख हेक्टेयर क्षेत्रमें से प्रायः 32 करोड 87 लाख हेक्टेयर भारतीय संघ में है। 8 करोड़ 4 लाख हेक्टेयर पाकिस्तान में और 1 करोड 44 लाख हेक्टेयर बांग्लादेश में।  भौगोलिक विस्तार में भारतवर्ष विश्व का सातवाँ सबसे बड़ा भूखण्ड है। रूसी संघ ( 1 अरब 70 करोड 80 लाख हेक्टेयर ) , चीन ( 96 करोड़ हेक्टेयर ) , अमरोको संयुक्तराज्य ( 93 करोड़ 60 लाख हेक्टेयर ) , कनाडा ( 92 करोड़ 20 लाख हेक्टेयर ) , ब्राज़ील ( 85 करोड 10 लाख हेक्टेयर ) और ऑस्ट्रेलिया ( 78 करोड़ 60 लाख हेक्टेयर ) का विस्तार भारतवर्ष...

महान सभ्यता का वाहक: भारत

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भारतीय सभ्यता अनेक सहस्राब्दियों तक मानवीय उपलब्धि के समस्त क्षेत्रों में विश्व की अग्रणी रही है। हम ऐसी महान् सभ्यता के वाहक हैं।  स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत के लोगों ने विभिन्न क्षेत्रों में राष्ट्र-निर्माण के सघन प्रयास किये हैं , तथापि भारत अपने समकक्ष गिने जाने वाले विश्व के अन्य देशों से बहुत पीछे दिखाई देता है । हमें गम्भीरता पूर्वक विचार करना चाहिये कि कैसे हम अपने वर्तमान को अपनी इस गौरवशाली परम्परा के अनुरूप वैभवशाली बना सकते हैं , कैसे हम अपनी सहज महत्ता को आज के विश्व में पुनःस्थापित कर सकते हैं ।  इस पेज में भारत के सहज सम्पन्न भृगोल , भारत भूमि को प्राप्त अद्वितीय प्राकृतिक सम्पदाओं , भारतके लोगों को विलक्षण भौतिक , तकनीकी एवं सामाजिक दक्षताओं , भारतीय संस्कृति को अनुपम सामाजिक एवं आध्यात्मिक उपलब्धियों , और भारतीय सभ्यताके सुदीर्घ एवं निर्बाध प्रवाह में परिष्कृत हुए अनन्य विचारों एवं संस्थानों का वर्णन हुआ है । इतिहास में भारतीय सभ्यता के सतत प्रवाह में आये व्यवधानों और उनसे उपजे विभ्रम एवं दारिद्रय का किञ्चित् उल्लेख भी समझना आवश्यक है साथ...

भारत की सांस्कृतिक संपदा

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पतंजलि मिश्र  विश्व की कदाचित् दो ही सभ्यताएँ हैं जो अतिप्राचीन कालसे अबतक अनिर्बाध प्रवाहित होती चली आ रही हैं। इस दृष्टिसे हमारे समकक्ष दूसरी सभ्यता चीन की है । अपने इस दीर्घ इतिहास के प्रायः समस्त कालों में भारतीय ही नहीं भारतके बाहर से यहाँ आनेवाले आक्रान्ता और पर्यवेक्षक भी भारत को अत्युच्च भौतिक समृद्धि एवं उससे भी कहीं ऊँची आध्यात्मिक समृद्धि से सम्पन्न विशिष्ट भूमिके रूपमें देखते रहे हैं । गत कुछ शताब्दियोंके परकीय शासनके कालमें भारतके लोग अपनी इस विशेषता को भूल बैठे हैं। अंग्रेजी प्रशासकों द्वारा गढ़े गये कपोलकल्पित इतिहासको सत्य मानकर वे अपनी भूमि एवं अपनी सभ्यताको महत्ताको नकारने लगे हैं। भारतके लोग अपने मन में ही अपने गौरव से वञ्चित हो बैठे हैं। अपनी सहज स्वाभाविक भौतिक एवं आध्यात्मिक समृद्धिको पुनः प्राप्त करनेके लिये हमें अपनी नैसर्गिक एवं सभ्यतागत सम्पदाओं का पुनः स्मरण करना होगा। अपनी सहज समृद्धि को स्मृति लौट आयेगी तो उस समृद्धि को पुनः प्राप्त करने के सम्यक् प्रयास करने का संकल्प एवं बल भी हममें आ ही जायेगा । इस पेज के माध्यम से और इससे जुड़ी प्रदर्शनी में भारतवर्...